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देवता: अग्निः ऋषि: विश्वामित्रो गाथिनः छन्द: गायत्री स्वर: षड्जः काण्ड:

ई꣣डे꣡न्यो꣢ नम꣣꣬स्य꣢꣯स्ति꣣र꣡स्तमा꣢꣯ꣳसि दर्श꣣तः꣢ । स꣢म꣣ग्नि꣡रि꣢ध्यते꣣ वृ꣡षा꣢ ॥१५३८॥

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स्वर-रहित-मन्त्र

ईडेन्यो नमस्यस्तिरस्तमाꣳसि दर्शतः । समग्निरिध्यते वृषा ॥१५३८॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

ई꣣डे꣡न्यः꣢ । न꣣मस्यः꣢ । ति꣣रः꣢ । त꣡मा꣢꣯ꣳसि । द꣣र्शतः꣢ । सम् । अ꣣ग्निः꣢ । इ꣣ध्यते । वृ꣡षा꣢꣯ ॥१५३८॥

सामवेद » - उत्तरार्चिकः » मन्त्र संख्या - 1538 | (कौथोम) 7 » 2 » 2 » 1 | (रानायाणीय) 15 » 1 » 2 » 1


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हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

प्रथम मन्त्र में परमात्माग्नि का विषय वर्णित है।

पदार्थान्वयभाषाः -

(ईडेन्यः) स्तुति के योग्य, (नमस्यः) नमस्कार के योग्य, (तमांसि) तमोगुणों को (तिरः) दूर करनेवाला, (दर्शतः) दर्शनीय, (वृषा) सुखों की वर्षा करनेवाला (अग्निः) जगन्नायक परमेश्वर (समिध्यते) अन्तरात्मा में प्रदीप्त होता है ॥१॥

भावार्थभाषाः -

परमेश्वर को अपने आत्मा में प्रदीप्त करके उसके नेतृत्व को पाकर मनुष्यों को अपना जीवन उन्नत करना चाहिए ॥१॥

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संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

तत्रादौ परमात्माग्निविषयमाह।

पदार्थान्वयभाषाः -

(ईडेन्यः) ईडितुं स्तोतुमर्हः, (नमस्यः) नमस्कर्तुं योग्यः, (तमांसि) तमोगुणान् (तिरः) तिरस्कर्ता, (दर्शतः) दर्शनीयः, (वृषा) सुखवर्षकः (अग्निः) जगन्नायकः परमेश्वरः (समिध्यते) अन्तरात्मनि प्रदीप्यते ॥१॥२

भावार्थभाषाः -

परमेश्वरं स्वात्मनि प्रदीप्य तन्नेतृत्वमुपलभ्य जनैः स्वजीवनमुन्नेतव्यम् ॥१॥